आरक्षण नीति: प्रतिभा का अपमान
भारत जैसे विविधतापूर्ण राष्ट्र में आरक्षण एक ऐसा विषय है जो भावनाओं को उत्तेजित करता है, बहसों को जन्म देता है और नीतियों को आकार देता है। हाल ही में JEE मेन 2025 के परिणामों ने फिर से इस बहस को तीखा कर दिया। सामान्य वर्ग (जनरल) के लिए कटऑफ पर्सेंटाइल 93.102 रहा, जबकि अनुसूचित जाति (SC) के लिए यह 61.152 पर बंद हुआ।
कल्पना कीजिए: एक छात्र जो 92 पर्सेंटाइल लाता है, वह बाहर रह जाता है, जबकि एक अन्य जो 60 पर है, वह आईआईटी या एनआईटी की सीट हासिल कर लेता है। यह उदाहरण न केवल व्यक्तिगत निराशा को दर्शाता है, बल्कि एक व्यापक प्रश्न उठाता है: क्या आरक्षण वास्तव में देश के विकास को बाधित कर रहा है? क्या प्रतिभाशाली युवा सड़कों पर भटकने को मजबूर हो रहे हैं? यह लेख आरक्षण के पक्ष और विपक्ष दोनों को संतुलित रूप से विश्लेषित करेगा। हम इतिहास, तर्क, आर्थिक प्रभाव और सुधारों पर चर्चा करेंगे। मकसद है सत्य की खोज – न कि पूर्वाग्रहपूर्ण निंदा। क्योंकि भारत का विकास तभी संभव है जब हम जाति की दीवारों को तोड़कर योग्यता और समानता का संतुलन साधें।
आरक्षण का ऐतिहासिक संदर्भ: एक आवश्यक बुराई या स्थायी समाधान?
आरक्षण की जड़ें ब्रिटिश काल में हैं, जब 1902 में कोल्हापुर के राजा ने पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की शुरुआत की। स्वतंत्र भारत में डॉ. बी.आर. अंबेडकर के नेतृत्व में संविधान ने अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के लिए 15% और 7.5% आरक्षण सुनिश्चित किया।
इसका उद्देश्य था सदियों की जातिगत भेदभाव को समाप्त करना – जहां दलितों को मंदिरों में प्रवेश तक निषेध था। 1951 के पहले संशोधन ने निजी संस्थानों में भी आरक्षण की अनुमति दी। 1990 में मंडल आयोग ने ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) के लिए 27% आरक्षण की सिफारिश की, जो 1993 में लागू हुई। 2019 में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) के लिए 10% आरक्षण जोड़ा गया।
आज कुल 59.5% आरक्षण है, जो 50% की सुप्रीम कोर्ट सीमा को चुनौती देता है। पक्ष में तर्क: आरक्षण ने लाखों को मुख्यधारा में लाया। SC/ST समुदायों में साक्षरता दर 1951 के 10% से बढ़कर 2021 में 66% हो गई।
यह सामाजिक न्याय का साधन है, जो ऐतिहासिक अन्याय को सुधारता है। बिना इसके, अवसरों की असमानता बनी रहती – जैसे कि उच्च जातियों के पास 80% संसाधन होते हैं।
लेकिन विपक्ष: यह नीति 75 वर्षों बाद भी जाति पर आधारित है, जो विभाजन को बढ़ावा देती है। क्या अब भी ‘पिछड़ापन’ जाति से मापा जाए, न कि आर्थिक स्थिति से?
यह प्रश्न आज प्रासंगिक है।
पक्ष में तर्क: समानता की दिशा में एक कदम
आरक्षण के समर्थक इसे ‘सकारात्मक भेदभाव’ (affirmative action) कहते हैं। मुख्य तर्क:
- ऐतिहासिक अन्याय का प्रतिकार: भारत में जाति व्यवस्था ने SC/ST/OBC को शिक्षा और नौकरियों से वंचित रखा। आरक्षण ने उन्हें प्रतिनिधित्व दिया। उदाहरणस्वरूप, आईएएस में SC का हिस्सा 15% से अधिक हो गया, जो नीतियों को समावेशी बनाता है।
- सामाजिक गतिशीलता: अध्ययनों से पता चलता है कि आरक्षण ने SC/ST की गरीबी दर को 20% कम किया। राजनीतिक आरक्षण (पंचायतों में 33% महिलाओं/पिछड़ों के लिए) ने सार्वजनिक सेवाओं को बेहतर बनाया – जैसे SC आरक्षित पंचायतों में स्कूलों की संख्या 10% अधिक।
- जाति से परे समान अवसर: समर्थक कहते हैं कि आर्थिक आधार पर आरक्षण (EWS) पर्याप्त नहीं, क्योंकि जाति अभी भी भेदभाव का स्रोत है। एक अध्ययन में पाया गया कि निजी क्षेत्र में SC उम्मीदवारों को 25% कम कॉल मिलते हैं।
ये तर्क दर्शाते हैं कि आरक्षण ने लाखों को सशक्त बनाया, लेकिन क्या यह विकास को बढ़ावा देता है या बाधित?
विपक्ष में तर्क: योग्यता का अपमान और विकास की बाधा
आपके उदाहरण की तरह, आरक्षण अक्सर ‘रिवर्स डिस्क्रिमिनेशन’ का आरोप लगाता है। मुख्य आलोचनाएं:
- मेरिटोक्रेसी का हनन: JEE जैसे परीक्षाओं में निम्न कटऑफ से योग्य उम्मीदवार बाहर हो जाते हैं। 2025 में सामान्य वर्ग के 93 पर्सेंटाइल वाले छात्र को अस्वीकार किया जाता है, जबकि SC के 61 वाले को प्रवेश मिलता है। यह न केवल व्यक्तिगत अन्याय है, बल्कि संस्थानों की गुणवत्ता को प्रभावित करता है। आलोचक कहते हैं कि इससे ‘ब्रेन ड्रेन’ बढ़ता है – योग्य युवा विदेश चले जाते हैं।
- जातिगत विभाजन का स्थायीकरण: आरक्षण जाति को राजनीतिक हथियार बनाता है। हर चुनाव में ‘आरक्षण बढ़ाओ’ का नारा लगता है, जो एकता को कमजोर करता है। एक सर्वे में 60% युवा मानते हैं कि यह ‘कास्टिज्म’ को जीवित रखता है।
- अक्षमता और भ्रष्टाचार: निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग से उद्योग प्रभावित होते हैं। अध्ययन दिखाते हैं कि आरक्षण कानूनों ने विनिर्माण क्षेत्र की दक्षता 15% कम की। ‘क्रीमी लेयर’ (समृद्ध पिछड़े) को लाभ मिलता है, जबकि वास्तविक गरीब बाहर रह जाते हैं।
ये तर्क आपके दर्द को प्रतिबिंबित करते हैं: प्रतिभाशाली युवा बेरोजगार क्यों? क्योंकि नीति योग्यता को नजरअंदाज करती है।
आर्थिक विकास पर प्रभाव: मिश्रित चित्र
आरक्षण का विकास पर प्रभाव विवादास्पद है। सकारात्मक पक्ष: राजनीतिक आरक्षण ने SC/ST क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे को 10% बढ़ाया, गरीबी कम की।
आरक्षण ने संपत्ति असमानता को 20% घटाया।
नकारात्मक: यह उत्पादकता को प्रभावित करता है। एक अध्ययन में पाया गया कि आरक्षण से ‘मिसअलोकेशन’ होता है – कम योग्य व्यक्ति उच्च पदों पर।
भारत की GDP वृद्धि 7% है, लेकिन बेरोजगारी 8% – जिसमें योग्य स्नातकों का 20% हिस्सा है।
आरक्षण ने शिक्षा में समावेश बढ़ाया, लेकिन नौकरियों में दक्षता घटी। दक्षिण भारत (जहां आरक्षण अधिक है) ने बेहतर प्रदर्शन किया, लेकिन उत्तर में विभाजन बढ़ा।
कुल मिलाकर, आरक्षण ने समानता बढ़ाई लेकिन विकास को असंतुलित किया। क्या यह ‘ट्रेड-ऑफ’ स्वीकार्य है?
सुधारों की आवश्यकता: संतुलन की दिशा में
आरक्षण को समाप्त करने की बजाय सुधार जरूरी हैं। सुझाव:
- आर्थिक आधार पर बदलाव: जाति के बजाय आय/संपत्ति पर आरक्षण। EWS मॉडल को विस्तार दें। tclf.in सुप्रीम कोर्ट ने 2022 में कहा कि 50% सीमा लचीली हो सकती है। iasexpress.net
- क्रीमी लेयर का सख्त कार्यान्वयन: SC/ST में भी ‘क्रीमी लेयर’ लागू करें, ताकि लाभ वास्तविक जरूरतमंदों तक पहुंचे।
- समयबद्ध और प्रदर्शन-आधारित: 10-वर्षीय समीक्षा चक्र। शिक्षा में निवेश बढ़ाकर (जैसे स्कॉलरशिप) आरक्षण कम करें। medium.com
- निजी क्षेत्र में वैकल्पिक: कोटा के बजाय प्रोत्साहन – जैसे टैक्स छूट। reddit.com
ये सुधार JEE जैसे क्षेत्रों में मेरिट को मजबूत करेंगे, बिना सामाजिक न्याय को नजरअंदाज किए।
एक नया भारत, जहां योग्यता और न्याय साथ चलें
आरक्षण न तो पूर्ण बुराई है, न ही पूर्ण समाधान। यह सामाजिक घाव भरने का प्रयास था, लेकिन अब यह विकास की जंजीर बन गया है। आपके उदाहरण की तरह, जब 104 नंबर वाला छात्र बाहर रह जाता है, तो राष्ट्र की क्षति होती है। लेकिन समाप्ति से अराजकता आएगी। समय है संवैधानिक समीक्षा का – जहां आरक्षण आर्थिक हो, समयबद्ध हो और मेरिट को प्राथमिकता दे। युवाओं को बेरोजगार न बनाएं, बल्कि उन्हें सशक्त बनाएं। भारत का सपना ‘सबका साथ, सबका विकास’ तभी साकार होगा जब हम जाति से ऊपर उठें। आइए, बहस को सकारात्मक बनाएं – सुधारों के लिए। क्योंकि प्रतिभा किसी जाति की मोहताज नहीं।
