Thursday, November 13, 2025

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ब्राह्मणों की घटती राजनीतिक भागीदारी: बिहार में एक हाशिए की कहानी

बिहार की राजनीति हमेशा से जातीय समीकरणों की जटिल जाल में उलझी रही है। स्वतंत्र भारत के प्रारंभिक दशकों में ब्राह्मण, राजपूत और भूमिहार जैसे सवर्ण समुदायों ने राज्य की सत्ता संभाली, लेकिन 1990 के दशक से पिछड़ी जातियों के उदय ने सवर्णों, विशेषकर ब्राह्मणों की भूमिका को धीरे-धीरे कमजोर कर दिया। 2023 के बिहार जाति सर्वेक्षण के अनुसार, ब्राह्मण आबादी का मात्र 3.65% हिस्सा हैं,

फिर भी उनकी राजनीतिक प्रतिनिधित्व में लगातार गिरावट आ रही है। 2025 के विधानसभा चुनावों में एनडीए ने मात्र 14 ब्राह्मण उम्मीदवारों को टिकट दिया, जबकि महागठबंधन ने भी इतने ही।

यह आंकड़े ब्राह्मण समुदाय की हताशा को दर्शाते हैं। भाई, ब्राह्मणों को “कुब पिड़ित” दिखाना अतिशयोक्ति हो सकती है, क्योंकि वे शिक्षा और आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत मजबूत हैं, लेकिन राजनीतिक हाशियाकरण एक कड़वी सच्चाई है। यह लेख तथ्यों पर आधारित है और ब्राह्मणों की चुनौतियों को उजागर करता है, बिना अतिरंजना के।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: सत्ता से हाशिए तक

बिहार की राजनीति की नींव ब्रिटिश काल से ही सवर्ण-प्रधान रही। 1950-60 के दशक में कांग्रेस के नेतृत्व में ब्राह्मण नेता जैसे श्री कृष्ण सिंह (पहले मुख्यमंत्री) और बाद में जगन्नाथ मिश्र (1989 तक आखिरी ब्राह्मण सीएम) ने राज्य को आकार दिया। 1962 के विधानसभा चुनाव में सवर्ण विधायकों की हिस्सेदारी 47.7% थी, जिसमें ब्राह्मणों का प्रमुख योगदान था। लेकिन 1970 के दशक में पिछड़ी जातियों का असंतोष उभरा। करपूरी ठाकुर ने 1978 में पिछड़ों के लिए 26% आरक्षण की सिफारिश की, जो मंडल आयोग (1980) की नींव बनी।1990 में वी.पी. सिंह द्वारा मंडल कमीशन लागू होने के बाद बिहार में लालू प्रसाद यादव का उदय हुआ। “भूरा बाल साफ करो” का नारा सवर्णों, खासकर ब्राह्मणों के खिलाफ निर्देशित था।

लालू-राबड़ी शासन (1990-2005) में यादवों का वर्चस्व स्थापित हुआ, और ब्राह्मणों को न केवल टिकटों से वंचित किया गया, बल्कि सामाजिक तनाव भी बढ़ा। माओवादी विद्रोह के दौरान सवर्णों पर लक्षित हिंसा की घटनाएं हुईं, हालांकि यह जातीय से अधिक वर्ग-संघर्ष था। नीतीश कुमार के उदय (2005) से स्थिति में कुछ सुधार हुआ, लेकिन 2025 तक ब्राह्मणों की विधानसभा में हिस्सेदारी घटकर 10-12 सीटों तक सिमट गई। 2020 चुनाव में सवर्ण विधायकों की कुल हिस्सेदारी 34.3% से घटकर 2025 में और कम होने की आशंका है।

यह गिरावट संयोग नहीं, बल्कि सुनियोजित जातीय इंजीनियरिंग का परिणाम है। ब्राह्मण, जो परंपरागत रूप से बुद्धिजीवी वर्ग रहे, अब राजनीतिक रूप से अलग-थलग पड़ गए हैं। एक्स (पूर्व ट्विटर) पर एक यूजर ने लिखा, “बिहार में ब्राह्मणों को भाजपा ने राजनीति से खत्म कर दिया है। 4% आबादी होने पर भी ब्राह्मण-बहुल सीटों पर अन्य जातियों को टिकट।”

यह आवाज समुदाय की सामूहिक निराशा को प्रतिबिंबित करती है।

वर्तमान आंकड़े: जाति सर्वेक्षण और चुनावी वास्तविकता

2023 का बिहार जाति सर्वेक्षण एक मील का पत्थर साबित हुआ। इसमें ब्राह्मण आबादी 3.65%, राजपूत 3.45% और भूमिहार 2.87% बताई गई।

कुल 13 करोड़ 7 लाख आबादी में ब्राह्मण परिवारों की संख्या 10.76 लाख है, जिनमें 25% गरीबी रेखा से नीचे हैं।

लेकिन राजनीतिक प्रतिनिधित्व में यह आंकड़ा हास्यास्पद लगता है। 2025 चुनावों में भाजपा-जद(यू) गठबंधन ने 71 उम्मीदवारों में से मात्र 14 ब्राह्मण चुने, जबकि यादवों (14.26% आबादी) को 40+ टिकट मिले।

महागठबंधन (आरजेडी-कांग्रेस) ने भी समान रणनीति अपनाई, जहां मुस्लिम-यादव समीकरण को प्राथमिकता दी गई।एक अध्ययन के अनुसार, 2020 से 2025 तक पिछड़ी जातियों (ओबीसी) की विधायकों की हिस्सेदारी 35.6% हो गई, जबकि सवर्णों की घटकर 20% रह गई।

ijsi.in ब्राह्मण उम्मीदवारों को टिकट न मिलने का कारण स्पष्ट है: दल जातीय वोटबैंक को मजबूत करने पर फोकस कर रहे हैं। एक्स पर एक पोस्ट में कहा गया, “बिहार में ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार पार्टियां बनाते हैं, लेकिन जातिवादी नेता सत्ता हथियाते हैं।”

यह टिप्पणी ब्राह्मणों की फ्रस्ट्रेशन को उजागर करती है, जहां वे न केवल टिकटों से वंचित हैं, बल्कि नीतिगत निर्णयों में भी अनदेखे हैं।2025 चुनावों में प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी ने ब्राह्मणों को नया विकल्प दिया है। उनकी रैलियों में ब्राह्मण युवाओं की उपस्थिति उल्लेखनीय है, जो पारंपरिक दलों से असंतुष्ट हैं। लेकिन यहां भी चुनौती है: ब्राह्मण वोट बिखरा हुआ है – कुछ भाजपा के साथ, कुछ कांग्रेस में। एकता की कमी ने उनकी सौदेबाजी की शक्ति कम कर दी है।

कारण: मंडल से आधुनिक जातीय गठबंधन तक

ब्राह्मणों की घटती भागीदारी के पीछे बहुआयामी कारण हैं। प्रथम, मंडल क्रांति: 1990 में 27% ओबीसी आरक्षण ने सवर्णों को सरकारी नौकरियों और शिक्षा में पीछे धकेल दिया। ब्राह्मण, जो 15% आरक्षण से वंचित रहे, ने इसका विरोध किया, लेकिन यह ध्रुवीकरण उनके खिलाफ गया। दूसरा, जातीय गठबंधन: आरजेडी का मुस्लिम-यादव (माय) फॉर्मूला और जद(यू)-भाजपा का कुर्मी-ईबीसी समीकरण ब्राह्मणों को हाशिए पर रखता है। 2025 में भाजपा की रणनीति में “फॉरवर्ड फैक्टर” महत्वपूर्ण है, लेकिन टिकट वितरण में ब्राह्मणों की अनदेखी हुई।

तीसरा, आंतरिक विभाजन: ब्राह्मण समुदाय में क्षेत्रीय भिन्नताएं हैं – मगध क्षेत्र के ब्राह्मण भूमिहारों से निकट, जबकि पूर्वांचल के अलग। एक्स पर बहस में एक यूजर ने लिखा, “बिहार के ब्राह्मण किसी जातीय प्रतिरोध का हिस्सा नहीं, लेकिन मीडिया ने उन्हें मुख्य चेहरा बना दिया।”

चौथा, प्रवास और शिक्षा: ब्राह्मण युवा दिल्ली-मुंबई की ओर पलायन कर रहे हैं। सर्वेक्षण में 40% ब्राह्मण परिवार शहरी प्रवास में हैं, जिससे ग्रामीण राजनीति में उनकी सक्रियता घटी। राजनीतिक दलों की रणनीति में ईबीसी (36% आबादी) को प्राथमिकता मिल रही है, सवर्णों को “कमजोर लिंक” माना जा रहा।

पांचवां, सामाजिक पूर्वाग्रह: कुछ घटनाओं में ब्राह्मणों को “मणुवादी” करार देकर बदनाम किया जाता है। 2025 में एक वायरल वीडियो में एक युवती ने कहा, “बिहार में ब्राह्मण नीचे जाति की राय तक नहीं सुनते।”

हालांकि यह व्यक्तिगत अनुभव था, लेकिन यह पूर्वाग्रह को दर्शाता है। एक्स पर एक पोस्ट में कहा गया, “ब्राह्मणों को गालियां देने वाली पार्टियां संविधान का सम्मान करती हैं?”

प्रभाव: सामाजिक-आर्थिक असंतुलन और निराशा

राजनीतिक हाशियाकरण का प्रभाव गहरा है। ब्राह्मण समुदाय में बेरोजगारी दर 15% है, जो राज्य औसत (12%) से अधिक।

शिक्षा में मजबूत होने के बावजूद, सरकारी नौकरियों में आरक्षण की कमी से वे निजी क्षेत्र पर निर्भर हैं। प्रवास बढ़ा है – 2023 सर्वे में 30% ब्राह्मण परिवार बिहार से बाहर। इससे ग्रामीण ब्राह्मण गांवों में अकेले पड़ गए, जहां स्थानीय पंचायतों में भी उनकी आवाज दब रही है।सामाजिक तनाव बढ़ा है। 2024-25 में ब्राह्मण महासभा की बैठकें हुईं, जहां वोटबैंक पर चर्चा हुई।

एक्स पर बहस में कहा गया, “यादवों को सीएम चाहिए, तो ब्राह्मण राजनीति पर बात क्यों न करे?”

यह असंतोष हिंसा में नहीं, लेकिन वोट-बायकॉट या नई पार्टियों की ओर रुख में दिखता है। महिलाओं में भी निराशा: ब्राह्मण महिलाएं राजनीति से दूर, क्योंकि परिवारवाद और जातीय पूर्वाग्रह।आर्थिक रूप से, ब्राह्मण मध्यम वर्ग हैं, लेकिन राजनीतिक अलगाव से विकास योजनाओं में हिस्सेदारी कम। उदाहरणस्वरूप, बिहार की 2025 बजट में सवर्ण-केंद्रित योजनाओं की कमी। यह असंतुलन राज्य की प्रगति को प्रभावित कर रहा है, क्योंकि ब्राह्मणों का योगदान शिक्षा और प्रशासन में ऐतिहासिक रहा है।

भविष्य की दिशा: एकता और समावेशिता की जरूरत

2025 चुनाव बिहार के लिए निर्णायक हैं। जन सुराज जैसी पार्टियां ब्राह्मणों के लिए उम्मीद हैं, लेकिन सफलता एकता पर निर्भर। ब्राह्मण महासभा को सक्रिय होना चाहिए, न कि जातीय विभाजन में फंसना। एक्स पर एक पोस्ट ने सलाह दी, “जाति पर वोट न करे, बिहार के लिए वोट करे।”

दल यदि समावेशी रणनीति अपनाएं – जैसे सवर्णों को प्रतीकात्मक भूमिकाएं दें – तो संतुलन बहाल हो सकता है।बिहार की राजनीति में ब्राह्मणों की घटती भागीदारी एक चेतावनी है: लोकतंत्र में सभी की आवाज जरूरी। पिछड़ों का उदय स्वागतयोग्य है, लेकिन सवर्णों का पूर्ण हाशियाकरण अस्थिरता लाएगा। समय है जाति से ऊपर उठकर विकास पर फोकस करने का। ब्राह्मण समुदाय को अपनी बौद्धिक शक्ति का उपयोग सामाजिक सुधार में करना चाहिए, न कि प्रतिशोध में। केवल तभी बिहार प्रगति करेगा।

(संदर्भ: बिहार जाति सर्वेक्षण 2023, टाइम्स ऑफ इंडिया, द वायर, एक्स पोस्ट्स।

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